“अनाहत नाद”
सामान्य सन्दर्भ में नाद का अर्थ है किसी भी प्रकार की ध्वनि। यह ध्वनि तब उत्पन्न होती है जब कोई वस्तु किसी अन्य वस्तु को छूती है, टकराती है, उससे रगड़ती है या उस वस्तु पर चोट करती है। आकाश में गड़गड़ाहट, हवा की सरसराहट, पक्षियों का चहकना, वाद्य या स्वर संगीत की तान, मशीनों की सीटी, और कई अन्य प्राकृतिक या मानव निर्मित ध्वनियाँ भौतिक ध्वनि की श्रेणी में आती हैं। योगिक साहित्य और व्यवहार में ‘नाद’ का एक अलग और विशेष अर्थ है। आध्यात्मिक अर्थों में नाद एक चोटरहित (बिना चोट वाली, अनाहत) ध्वनि है जो दो वस्तुओं के आपसी घर्षण या रगड़न से उत्पन्न नहीं हुई है | यह तो एक निरंतर ध्वनि है जो संपूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त है। वेदों और उपनिषदों जैसे प्राचीन धर्मग्रंथों के अनुसार, इस अनाहत (सनातन /अनंत) ध्वनि के कारण ही ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आया | वास्तव में यह भी कहा जाता है कि “नाद”, ध्वनि के रूप में (“ॐ”) उस दिव्य परमसत्ता की ही अभिव्यक्ति है | यही वह दिव्य ध्वनि है जो साधक को चेतना के उच्चतर स्तरों तक ले जाती है।
गुरु सियाग योग के अनेक साधकों को जब अजपा जाप (अपने आप जपा जाने वाला जाप) की अवस्था प्राप्त हो जाती है, तो उन्हें एक कान में अजीबोगरीब निरंतर चलने वाली ध्वनि सुनाई देने लगती है | यह ध्वनि प्राकृतिक या मानव निर्मित ध्वनियों की अनेक किस्मों में से किसी ना किसी एक ध्वनि से मिलती जुलती है | सामान्यतया “नाद” की अनुभूति में, इनमे से भी कुछ ध्वनियाँ सुनाई दे सकती हैं जैसे: झींगुर के बोलने की आवाज़, भौंरा या मधु-मख्खियों की गुंजन, बांसुरी की धुन, वीणा की झंकार (एक भारतीय संगीत वाद्य यन्त्र), घंटियों की आवाज़, मजीरों की खनक आदि या अन्य कोई भी ध्वनि हो सकती है | साधक को इस प्रकार की सुनाई पड़ने वाली ध्वनि “अनाहत नाद” का ही रूप है | हालाँकि यह नाद जो हमें सुनाई देता है, उसकी ध्वनि हमारी भौतिक दुनिया में सुनाई देने वाली ध्वनियों जैसी सी ही लगती है, लेकिन नाद, वास्तव में गुरुदेव द्वारा बताये गए संजीवनी मन्त्र (वैखरी वाणी या व्यक्त शब्द, दिव्य ध्वनि रूपी ऊर्जा का स्थूल रूप) के रूप में ईश्वरीय ध्वनि का एक सूक्ष्म रूप या अभिव्यक्ति है | साधक द्वारा नाद को सुनने से, नाद की वजह से उसकी चेतनता बढ़ने लगती है | साधक इन्द्रियों के प्रति सचेत होने लगता है |
नाद गुरुदेव के मंत्र का एक सूक्ष्म रूप है, और साधक का प्रयास हमेशा ही चेतना के ऊर्ध्वगमन की और रहता है, अतः जब साधक को “अनाहत नाद” सुनाई देना शुरू हो जाए तो उसे मन्त्र जप बंद कर देना चाहिए। इससे पहले कि साधक मन्त्र जपना बंद करे, वह यह सुनिश्चित कर ले कि नाद उसे निरंतर / अनवरत सुनाई दे रहा हो और यह एक संक्षिप्त अनुभूति भर नहीं हो। इसलिए साधक नाद को कई दिन ध्यान से सुनें। यदि उस ध्वनि की तीव्रता बढ़ती है और शोरगुल वाले वातावरण में भी वो ध्वनि सुनी जा सकती है, तो मानें कि आप जो सुन रहे हैं वह “अनाहत नाद” है।
गुरुदेव शिष्यों को इस नाद को यथासंभव सुनने की सलाह देते थे| लंबे समय तक एकाग्रता के साथ नाद को सुनने से, अभ्यास करने वाले का चलायमान मन, उस दिव्य ध्वनि से जुड़ जाता है और अंततः दिव्य के साथ एकाकार हो जाता है। ध्यान के दौरान, हमारा मानव शरीर दूसरे लोकों से आने वाले स्पंदन को, जो हमारी इस दुनिया से बहुत दूर हैं, प्राप्त करने और अनुभव करने वाले एक यन्त्र के रूप में कार्य करता है | इसलिए साधक द्वारा सुना जाने वाला “नाद” केवल एक भौतिक ध्वनि नहीं है बल्कि वो “नाद” उसके मूल दिव्य श्रोत से निकलने वाली एक सूक्ष्म ध्वनि है |
नाद के महत्व को, गुरुदेव की उस स्पष्ट व्याख्या से समझा जा सकता है जिसमे वो कहते हैं कि – कैसे अनाहत नाद “ॐ” शब्द से ब्रह्माण्ड की रचना हुई और परम सत्ता का अवतरण एक भौतिक सता में हुआ, और व्यक्ति का अध्यात्मिक विकास किस प्रकार उस अवतरण से सम्बन्धित है |
भौतिक जगत का निर्माण पांच अनुक्रमिक चरणों के माध्यम से हुआ है, जब ॐ (ओम), स्वयम परम सत्ता, अपने उच्चतम स्तर आकाश (आकाश तत्व) से वायु (हवा), अग्नि (आग) और जल (पानी) से होते हुए पृथ्वी (धरती) पर उतरी | पांच अवरोही तत्वों में से प्रत्येक पिछले एक की तुलना में परमात्मा (परम सत्ता) के एक अपरिष्कृत रूप का प्रतिनिधित्व करता है | पृथ्वी (धरती) जगत के सबसे अपरिष्कृत रूप का प्रतिनिधित्व करती है, जहाँ परम सत्ता (परमात्मा) अंततः उतर कर विराजमान होती है और मानव से लेकर कीट-कीटाणुओं के रूप में असंख्य रूप धारण करती है |
इन पांच प्राकृतिक तत्वों में प्रत्येक के पीछे “तन्मात्रा” नामक एक सूक्ष्म तत्व होता है। ये तन्मात्राएँ हमें हमारी पाँच भौतिक इंद्रियाँ देती हैं। इस प्रकार आकाश में शब्द, दिव्य शब्द या ध्वनि सूक्ष्म तत्व के रूप में है; पवन में स्पर्श है; आग में अनुभूति (देखना) है; पानी में स्वाद है और पृथ्वी तत्त्व में गंध है। ये भौतिक इंद्रियां हमें भौतिक जगत से बांध देती हैं, जिसके परिणामस्वरूप हम अपने सच्चे ईश्वरीय स्वरूप को भूल जाते हैं और खुशियों और दुखों के मायाजाल में फंस जाते हैं।
गुरुदेव कहते हैं – दिव्य सत्ता के भौतिक जगत में अवतरण की प्रक्रिया को उलट कर ही, भौतिक जगत के इस मायाजाल से बाहर निकला जा सकता है। जब हम मंत्र-ध्यान का अभ्यास करते हैं तो हमारी जागृत कुंडलिनी, प्रत्येक तत्व को उसके भौतिक अर्थ के साथ (इन्द्रियां) जीतकर चेतना के ऊर्ध्वगमन में मदद करती है और अंततः आध्यात्मिक विकास के शिखर सहस्रार में पहुंचती है। नाद तो वह दिव्य ध्वनि है जिससे हम बने हैं और इस मन्त्र-ध्यान साधना से हम पुन: इसी दिव्य ध्वनि (नाद) में परिवर्तित हो जाते हैं | यानि जहाँ से आये थे वहीं पहुँच जाते हैं |