गुरु सियाग योग

प्रश्न – मैं नियमित पूजा-पाठ (या नमाज़, प्रेयर) करता था पर मेरी इच्छाएं पूरी नहीं होती थी, लेकिन इस ध्यान को करने के बाद सब कुछ ठीक होने लगा, ऐसा क्यों? तो पहले क्या ऊपर वाले की शक्ति सुनती नहीं थी? इन गुरुदेव में या इस विधि में ऐसा क्या है जो सीधे पूजा से नहीं मिलता था?

उत्तर –प्रश्न बहुत गहरा है, आपने कभी सोचा कि एक छोटा बच्चा अपने पिता से जिद करके अपनी माँगे पूरी करवा लेता है या उसकी जिद देखकर पिता खुद ही उसकी डिमांड (मांग) पूरी कर देता हैं | पर जब हम अपनी किसी प्रार्थना को ऊपर वाले (परम पिता) से करते हैं तो वह पूरी क्यों नहीं होती? क्या ऊपर वाले में हमें देने की शक्ति नहीं है या फिर हमारी प्रार्थना ही ऊपर वाले तक नहीं पहुँच रही? अब ये तो है नहीं कि ऊपर वाले में देने की शक्ति नहीं है, हमारी प्रार्थना ही नहीं पहुंचती होंगी वरना ये कैसे सम्भव है कि ऊपर वाले (परम पिता) से हम कुछ मांगे और वो ना दे? मतलब हम उस ऊपर वाले की शक्ति से कनेक्ट नहीं हो पा रहे है; अब सवाल है कि ऊपर वाले की उस विशाल शक्ति से सम्पर्क कैसे करें?

आकाश से तूफानी बारिश में लाखों वोल्ट की बिजली गिरती है, पर उस बिजली से हम एक बल्ब भी नहीं जला सकते | लेकिन वही लाखों वोल्ट जैसी बिजली पावर हॉउस (बिजली घर) से जब तारों के द्वारा हमारे घर तक आती है तो हम बल्ब जला सकते हैं | यानी लाखों वोल्ट की बिजली का अनियंत्रित रूप, तारों द्वारा नियंत्रित होकर प्रकाश देता है |

इसी प्रकार हम सीधे ईश्वर की विशाल शक्ति से सम्पर्क नहीं बना पाते और ना ही हम डायरेक्ट ईश्वरीय शक्ति झेल सकते हैं | तो गुरुदेव के ध्यान का तरीका, हमारे व ईश्वरीय शक्ति के बीच एक तार (सम्पर्क) की भांति कार्य करता है | यही कारण है कि पहले, पूजा पाठ से जो समस्याएं नहीं मिटती थी वे अब गुरुदेव के ध्यान के माध्यम से उसी ऊपर वाले द्वारा मिटने लगी हैं |

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प्रश्न – तो फिर कोई भी गुरु के तरीके से हमारे कार्य होने चाहियें, गुरुदेव सियाग ही क्यों? गुरु सियाग अन्य गुरुओं से अलग कैसे हैं?

उत्तर –  अगर तार पतला या सही क्वालिटी का नहीं है तो भी बल्ब नहीं जलेगा या फ्यूज उड़ जायेगा, अर्थात तार में भी लाखों वोल्ट को सहन करने की क्षमता होनी चाहिए | इसी प्रकार गुरु भी स्वयं समर्थ होना चाहिए | तभी वह ईश्वरीय शक्ति का अहसास करा पायेगा | समर्थ का मतलब उपलब्ध या एनलाईटण्ड, कुन्डलिनी शक्ति को नियंत्रित कर सकने वाला, सगुण साकार एवं निर्गुण निराकार, दोनों सिद्धियाँ प्राप्त, जिसके फोटो मात्र से भी दुनियाँ में कहीं भी ध्यान लगे, जो आपको हर प्रकार के बन्धनों से मुक्त रखे, वही गुरु आपके लिए कार्य करेगा | ये सब समर्थताएं (गुण) गुरु सियाग में हैं |

अब सवाल है कि गुरु सियाग औरों से अलग कैसे हैं तो इसके बहुत सारे कारण हैं | समर्थ गुरु सर्वव्यापी होता है | जिस प्रकार एक ही सूर्य पूरी दुनिया को प्रकाश देता है उसी प्रकार समर्थ गुरु भी एक युग में एक ही होता है जो पुरे विश्व के किसी भी कोने में शिष्य के द्वारा ध्यान एवं नाम जप करने मात्र से कृपा करना आरम्भ कर देते हैं |

गुरुदेव सियाग सिद्ध योग में-

  • किसी भी प्रकार का पूजा-पाठ, माला, तिलक, चन्दन, आरती, मिठाई, नारियल, लच्छा, दिशा, दिन, व्रत, उपवास, तीर्थ, मंदिर-मस्जिद आदि कर्मकाण्ड सम्मिलित नहीं हैं .
  • पूरी दुनिया में कही भी बिना गुरुदेव से मिले, केवल गुरूदेव के फोटो से भी ध्यान लगता है,
  • दीक्षा के लिए, गुरुदेव कभी खुद के पास आने को भी बाध्य नहीं करते,
  • मंत्र दीक्षा विडियो / आडियो सी.डी. से, टी.वी. से, ई-मेल से भी पूरी तरह कार्य करती है,
  • मंत्र-जाप किसी दूसरे (जो स्वयं करने में अक्षम हो जैसे छोटे/नासमझ बच्चे, मानसिक विकृति वाले ) के लिए भी किया जा सकता है,
  • गुरुदेव साधक को कोई कोर्स या ट्रेनिंग सेशन अटेंड करने को नहीं कहते,
  • गुरु सियाग के सिद्धयोग को करने के लिए योग की कोई प्राम्भिक जानकारी आवश्यक नहीं,
  • गुरुदेव कुछ भी छोड़ने या बदलने को नहीं कहते, गुरुदेव का कहना कि तुम कुछ मत छोड़ो, जो वस्तु तुम्हारे लिए सही नहीं हैं वे तुमको छोड़ जायेंगी,
  • कोई लेन-देन कि जरूरत नहीं, गुरु सियाग सिद्धयोग पूर्णत निःशुल्क है,
  • गुरुदेव कोई डाइरेक्ट या इंडाइरेक्ट रूप से दान नहीं मांगते | कोई रजिस्ट्रेशन नहीं,
  • गुरुदेव कभी नहीं कहते कि मेरे को गुरु मानने के बाद किसी दूसरे को गुरु मत बनाओ,
  • गुरु सियाग कभी पाप-पुण्य, स्वर्ग-नर्क की बातें करके डराते नहीं हैं |
  • गुरुदेव कभी नहीं कहते कि मुझे मत छोड़ना | उनका कहना है मेरे ध्यान से आपका कार्य ना हो तो मुझे छोडकर नए गुरु अपना लो, कोई रोक नहीं हैं |
  • आध्यात्मिकता के नाम पर किस्से / कहानियाँ नहीं सुनाते |
  • गुरुदेव ऐसा कभी नहीं कहते कि गुरु छोड़ दोगे तो पाप लगेगा | गुरु सियाग तो कहते हैं कि मुझे छोड़ कर किसी और को गुरु बनालो और तुम्हारा काम न हो तो फिर झुककर मेरे से मांग लेना |
  • योग के नाम पर कोई कसरत नहीं करवाते |
  • गुरुदेव किसी भी प्रकार की दवाई या जड़ीबूटी नहीं बेचते |
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प्रश्न – गुरुदेव कहते हैं कि ईश्वर प्रत्यक्षानुभूति एवं साक्षात्कार का विषय है, कथा प्रवचन का नहीं, इससे क्या तात्पर्य है? क्योंकि आजकल तो कई चैनल्स पर आध्यात्मिकता के नाम पर कथा-प्रवचन होते ही नजर आते हैं |

उत्तर – भगवान, गौड, अल्लाह आदि क्या हैं? कहाँ रहते हैं? कैसे मिलेंगे? आदि अनेक प्रश्न दिमाग में आते रहते हैं | इनका उत्तर पाने के लिए मंदिर, मस्जिद, चर्च जाकर या घर पर पूजा–पाठ इत्यादि करते रहते हैं | बचपन से देखते आये हैं कि दादा, पिता, माता आदि नियमित पूजा–पाठ, माला फेरना, व्रत-उपवास, कथाएँ सुनना, रामायण पाठ, हनुमान चालीसा, नमाज़, प्रेयर, माता की पूजा आदि करते आये हैं | इनके कहने पर एवं देखा-देखी हमने भी यह कार्य चालू कर दिए | परन्तु इतना करने के बाद भी भगवान के बारे में न तो पता चला और ना ही यह समझ आया कि क्या करें? प्राचीनकाल में अधिकांश मनुष्य विभिन्न दैवीय शक्तियों के स्वामी थे, जब कि शारीरिक रूप से वे हमारे समान ही थे | भूत-भविष्य की घटनाएँ देखना, सुनना, इच्छा मात्र से ध्यान, समाधि में चले जाना, सोचा हुआ घटित हो जाना आदि; ये कोई जादुई शक्तियाँ नहीं थी, ये उस काल के मनुष्यों की आन्तरिक दैवीय शक्ति, कुन्डलिनी शक्ति जागृत अवस्था में होने के कारण था | उस काल के लिए ये साधारण क्रियाएँ मात्र थी | इसके कई उदाहरण रामायण, महाभारत, कुरान, बाइबल, गीता आदि में मौजूद हैं | कुन्डलिनी हम सब में भी है, पर कलियुग के गुणधर्म के कारण सोई हुई है | इस कारण हम सब प्रकार की शक्तियों से हीन हो गए हैं | तामसिक शक्तियाँ सब ओर से हावी हो गयीं हैं | विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ भी, इन आन्तरिक शक्तियों की क्षीणता का परिणाम हैं | आज विभिन्न शारीरिक कसरतों को योग का नाम दिया जाता है, जब कि इस योग का, वैदिक दर्शन में वर्णित योग से कोई सम्बन्ध नहीं है | सिद्धयोग दर्शन में शरीर, समर्थ गुरु के ध्यान के दौरान,

आवश्यकतानुसार अपने आप आसन एवं प्राणायाम करता है | आज के धर्माचार्य अतीत का गुणगान करते हुए त्रेता एवं द्वापर युग के कथा-प्रवचन सुनाते हैं | कुन्डलिनी की केवल बातें करते हैं | इन कथा-प्रवचनों से, न तो सुनने वाले को और ना ही सुनाने वाले को ईश्वरीय शक्ति का अहसास हुआ है, इसे वे भली-भांति जानते हैं | कथा-प्रवचन करने वाले आपको कई प्रकार से डराते हैं | ईश्वर के नाम से तो भय दूर भागता है, और मनुष्य हर प्रकार के बंधन से मुक्त हो जाता है | पर इस समय पाप-पुण्य, स्वर्ग-नर्क रूपी काल्पनिक बन्धनों से बांधकर, भय से भगवान की अनुभूति करवाते हुए, मोक्ष को समझाने का असफल प्रयास किया जा रहा है |

समर्थ गुरु ईश्वर का साक्षात्कार एवं प्रत्यक्षानुभूति करवा देते हैं ना कि कथा, किस्से, कहानियां सुनाकर मनोरंजन करवाते हैं | जिस प्रकार पानी के बारे में केवल बातें करने से प्यास नहीं बुझती, उसी प्रकार कुण्डलिनी की बातें करना, पुरातन काल में हुई घटनाओं को तोड़-मरोड़ कर जनता को हंसाना, मनघड़न्त किस्से – कहानियाँ सुनाना एवं मनोरंजन करवाने से ईश्वर की प्रत्यक्षानुभूति एवं साक्षात्कार नहीं होता या सुनने वाले को ईश्वरीय शक्ति का अहसास नहीं होता |

गुरुदेव किसी भी प्रोग्राम में, या उनके केवल फोटो पर ध्यान करने से मनुष्य की कुन्डलिनी जागृत करवाकर ईश्वर की प्रत्यक्षानुभूति करवा देते हैं | गुरुदेव कोई किस्से कहानियां नहीं सुनाते, वे प्रत्यक्ष प्रमाण देते हैं |

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प्रश्न – लोग कहते हैं गुरु सियाग के प्रति, गुरू के प्रति, पूर्ण निष्ठा व धैर्य आवश्यक है एवं पूर्ण समर्पण हो तो परिणाम अवश्य मिलता है; निष्ठा, धैर्य व पूर्ण समर्पण का क्या मतलब है?

उत्तर – केवल और केवल गुरु सियाग की साधना पद्धति को पूरी तरह से अपनाना | आरम्भ करने वाले इस बात को लेकर चिन्तित रहते हैं कि किस प्रकार प्रयास कर जाप किया जाय; लेकिन कुछ दिनों तक ही निष्ठापूर्वक लगातार प्रयास की आवश्यकता होती है। जब कुछ दिनों तक लगातार मंत्र का जाप किया जाता है तो यह स्वतः ही जपा जाने लगता है फिर भी यह इस बात पर निर्भर करता है कि कितनी निष्ठा, ईमानदारी और लगन के साथ प्रयास किया गया है। साधक को यह सख्त हिदायत दी जाती है कि यदि उनकी प्रगति धीमी लगे तो भी वह इसे छोड़े नहीं, अंततः वह इसे प्राप्त कर लेंगे।

सिद्धयोग में गुरू सियाग के प्रति पूर्ण विश्वास एवं समर्पण के साथ दीक्षा में दिये गये मंत्र का जाप एवं ध्यान शामिल है। गुरू सियाग एक साधक को जो उनका शिष्य बनना चाहता है “एक मंत्र-, एक दिव्य शब्द” देते हैं जिसका चुपचाप (बिना होंठ या जीभ हिलाए ) मानसिक रूप से जाप करना होता है तथा वह बतलाते हैं कि प्रतिदिन ध्यान कैसे करना है | रोजाना ध्यान, मानसिक रूप से मंत्रजाप के साथ होता है। कुछ दिनों तक लगातार मंत्र का जाप करते रहने से “अजपा-जाप” बन जाता है। यह सीधे तौर पर इस बात पर निर्भर करता है कि जाप कितनी निष्कपटता, विश्वास तथा तीव्रता के साथ किया गया है। कुछ साधकों में यह जाप एक सप्ताह में ही अजपा-जाप बन सकता है तथा अन्य में कुछ महीने या अधिक समय भी लग सकता है। शिष्य को मंत्र जाप के साथ-साथ सुबह शाम 15-15 मिनट के लिये ध्यान भी करन होता है।

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प्रश्न – गुरु सियाग जो  दिव्य-मंत्र देते हैं वह किस प्रकार कार्य करता है? मन्त्र (नाम-जप) किस प्रकार परिवर्तन लाता है? ये मंत्र लेना क्यों जरूरी होता है? अगर मंत्र नहीं लिया है और किसी भी ईश्वरीय शक्ति का नाम-जप करके ध्यान करते हैं तो साधना में क्या अंतर पडेगा?  

उत्तर – अगर आपने मंत्र प्राप्त नहीं किया है तो आपकी समस्याओं का निदान या आध्यात्मिक विकास केवल ध्यान की अवधि के दौरान ही होगा | यानि प्रगति बहुत धीरे होगी | और अगर आपने गुरुदेव से मंत्र प्राप्त किया है एवं निरंतर मंत्र-जाप भी करते हैं तो प्रगति ध्यान के समय के अलावा मंत्र-जाप करते-करते भी होती रहेगी | प्रगति की रफ्तार बहुत तेज हो जायेगी | आप गुरुदेव की शक्ति से निरंतर सम्पर्क में रहेंगे | जिस प्रकार बिजली के स्विच से उपकरण तक तार जुड़ा होने से उपकरण चलता रहता है उसी प्रकार निरंतर नाम-जप आपके अंदर के विकास को लगातार आगे बढ़ाता है | एवं उस नाम-जप के कारण शक्ति, ध्यान के समय के अलावा भी लगातार आपके साथ कार्य करती रहती है इसलिए हर परेशानी का जल्दी समाधान होता है |

दुनियां के सभी धर्मों में कितनी भी विभिन्नताएं हों पर एक बात पर सभी एकमत हैं कि इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति एक दिव्य शब्द से हुई है। बाइबल भी कहती है कि  स्रष्टि के आरम्भ में शब्द था, शब्द ईश्वर के साथ था, शब्द ईश्वर था | वह शब्द ईश्वर के साथ आरम्भ हुआ था, हर वस्तु ‘उसके’ द्वारा बनाई गई थी और ‘उसके’ बिना कुछ भी बनाना सम्भव नहीं था जो कुछ भी बनाया गया था, ‘उसमें’ ही जीवन था वह जीवन ही इंसान का प्रकाश था।

इस बारे में श्री अरविंद ने पुस्तक ‘चेतना कि अपूर्व यात्रा’ में लिखा है कि “भारत वर्ष में एक गुह्य विद्या विद्यमान है जिसका आधार है नाद तथा चेतना-स्तरों के अनुरूप स्पन्दन-विधि के भिन्न-भिन्न तरीके। उदाहरणतः यदि हम ‘ओम’ ध्वनि का उच्चारण करें तब हमें स्पष्ट अनुभव होता है कि वह मूर्धा के केन्द्रों को घेर लेती है। इसके विपरीत ‘रं’ ध्वनि नाभिकेंद्र को स्पर्श करती है। हमारी चेतना के प्रत्येक केंद्र का एक लोकविशेष के साथ सीधा सबंध होने के कारण, कुछ ध्वनियों का जप करके मनुष्य उनके समरूप चेतना-स्तरों के साथ सम्बंध स्थापित कर सकता है। एक सम्पूर्ण आध्यात्मिक अनुशासन इसी तथ्य पर आश्रित है। वह ‘तांत्रिक’ कहलाता है क्योंकि तंत्र नामक शास्त्र से उसकी उत्पत्ति हुई है। ये आधारभूत या मूल ध्वनियाँ, जिनमे संबंध स्थापित करने की शक्ति निहित रहती है, मंत्र कहलाती हैं। मात्र समर्थ गुरु द्वारा ही शिष्य को उपदिष्ट ये मंत्र, सदा गोपनीय हैं। मंत्र बहुत तरह के होते हैं (चेतना के प्रत्येक स्तर की बहुत सी कोटियाँ हैं) और सर्वथा विपरीत लक्ष्यों के लिए इनका प्रयोग हो सकता है। कुछ विशिष्ट ध्वनियों के संमिश्रण द्वारा मनुष्य चेतना के निम्न स्तरों पर, बहुदा प्राण-स्तर पर, इनसे समरूप शक्तियों के साथ संपर्क जोड़कर, अनेक प्रकार की बड़ी ही विचित्र क्षमताएं प्राप्त कर सकता है – ऐसे मंत्र हैं जो घातक सिद्ध होते हैं (पांच मिनट के अंदर भयंकर वमन होने लगता है), ठीक-ठीक निशाना बनाकर वे शरीर के किसी भी भाग पर, किसी अंगविशेष पर प्रहार करते हैं, फिर रोग का उपशम करने वाले, आग लगा देने वाले, रक्षा करने वाले, मोहिनी शक्ति डाल वश में करने वाले भी मंत्र होते हैं। इस तरह का जादू-टोना या यह स्पंद-रसायन एकमात्र निम्न-स्पन्दों के सचेतन प्रयोग का परिणाम होता है। किन्तु एक उच्चतर जादू जो कि होता है स्पन्दों के ही व्यवहार द्वारा सिद्ध, किन्तु चेतना के ऊर्ध्व स्तरों पर – काव्य, संगीत, वेदों तथा उपनिषदों के आध्यात्मिक मंत्र अथवा वे सब मंत्र जिनका कोई गुरु अपने शिष्य को, चेतना के किसी विशेष स्तर के साथ, किसी विशेष शक्ति अथवा दिव्य सत्ता के साथ, सीधा सम्बंध स्थापित करने के लिए सहायता करने के उद्देश्य से, उपदेश करता है। अनुभूति और सिद्धि की शक्ति स्वयं इस ध्वनि में ही विद्यमान रहती है – यह ऐसी ध्वनि होती है जो हमें अंतर्दृष्टि प्रदान करती है।“

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प्रश्न – गुरुदेव राधा-कृष्ण का मंत्र देते हैं | क्या इसका मतलब है कि मैं राधा-कृष्ण के मंदिर जा सकता हूँ और उनकी पूजा भी कर सकता हूँ?

उत्तर – गुरुदेव जब राधा-कृष्ण का मंत्र देते  तब राधा से अर्थ है फीमेल-डिवाइन यानी कुन्डलिनी शक्ति एवं कृष्ण से अर्थ है मेल-डिवाइन यानी गुरुदेव स्वयं, अर्थात ब्रह्मांड की पुरुष शक्ति व कुन्डलिनी अर्थात मातृशक्ति | इसीलिए आज्ञाचक्र पर गुरुदेव का ध्यान करने से यानि पुरुष-शक्ति का ध्यान करने से, कुन्डलिनी यानि मातृशक्ति ऊपर उठने लगती है | इसका मतलब आप वर्तमान राधा-कृष्ण के मंदिरों से ना लें | कई साधक गुरुदेव व दादा गुरुदेव के साथ राधा-कृष्ण के फोटो भी लगा लेते हैं, या राधा-कृष्ण के मंत्र को राधा-कृष्ण की पूजा करने के रूप में ले लेते हैं, तो फिर ऐसा करने वाले व अन्य मंदिरों की पूजा करने वालों में कोई अंतर नहीं रहेगा |

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प्रश्न – मैं जब भी मुसीबत में होता हूँ तब गुरुदेव के मन्त्र का नाम-जप करने से उस मुसीबत से छुटकारा मिल जाता है, पर ये समझ नहीं आता कि मुसीबत बार-बार  क्यों आती है?

उत्तर – आपके प्रश्न में ही आपके इस प्रश्न का उत्तर छिपा है, आपने कभी सोचा है कि नाम-जप से मुसीबत मिट जाती है, लेकिन मुसीबत आती ही क्यों है? अगर आप नियमित नाम-जप व ध्यान करेंगे तो मुसीबत आएगी ही नहीं | आप इसको इस प्रकार समझ सकते हैं कि, जब आप गुरुदेव का नियमित नाम-जप व ध्यान करते हैं तो आपके चारों ओर एक प्रकार का सुरक्षा-घेरा बन जाता है, जो ध्यान व नाम-जप के साथ दिनोंदिन मजबूत होता जाता है एवं अधिकांश समस्याएं उस कवच के कारण परिवर्तित हो जाती हैं और आप पूर्ण सुरक्षित रहते हैं | लेकिन अगर आप नाम-जप या ध्यान रोक देते हैं या अनियमित कर देते हैं तो वह सुरक्षा-घेरा धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगता है, उसमे छिद्र होने लगते हैं जिसके कारण आपको मुसीबतें प्रभावित करने लगतीं हैं | फिर आप परेशान होकर नाम-जप करने लगते हैं जिसके कारण आप उस मुसीबत से मुक्ति पा जाते हैं | अगर आप नियमित जाप करते रहें तो कवच कमजोर होगा ही नहीं | ओर जब कवच कमजोर नहीं होगा तो मुसीबतें असर ही नहीं करेंगी | कवच की कार्य-प्रणाली आप इस प्रकार समझ सकते हैं कि कई बार बीमारियाँ फैलती हैं लेकिन उन्हीं बीमारियों के बीच रहकर भी साधकों को बीमारी नहीं होती, और यदि होती भी है तो साधना की गहनता के आधार पर अतिशीघ्र ठीक हो जाती है | इस प्रकार अगर आप नियमित ध्यान एवं मंत्र-जाप करेंगे तो सुरक्षा-घेरा कमजोर ही नहीं होगा | मंत्र-जाप के कारण मुसीबत आएँगी ही नहीं और आएँगी भी तो आपके साधना की शक्ति के घेरे से टकरा कर वापस लौट जायेंगी |

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प्रश्न – मानव शरीर व आत्मा का क्या सम्बन्ध है? कोशों व मानव चेतना में क्या सम्बन्ध है?

उत्तर –  हमारे ऋषियों ने गहन शोध के बाद इस सिद्धान्त को स्वीकार किया कि जो ब्रह्माण्ड में है, वही सब कुछ पिण्ड (शरीर) में है। इस प्रकार मूलाधार चक्र से आज्ञा चक्र तक का जगत माया का और आज्ञा चक्र से लेकर सहस्त्रार तक का जगत परब्रह्म का है।

वैदिक ग्रन्थों में लिखा है कि मानव शरीर आत्मा का भौतिक घर मात्र है। आत्मा सात प्रकार के कोषों से ढकी हुई हैः- 1. अन्नमय कोष (द्रव्य, भौतिक शरीर के रूप में जो भोजन करने से स्थिर रहता है), 2. प्राणमय कोष (जीवन शक्ति), 3. मनोमय कोष (मस्तिष्क जो स्पष्टतः बुद्धि से भिन्न है), 4. विज्ञानमय कोष (बुद्धिमत्ता), 5. आनन्दमय कोष (आनन्द या अक्षय आनन्द जो शरीर या दिमाग से सम्बन्धित नहीं होता), 6. चित्मय कोष (आध्यात्मिक बुद्धिमत्ता) तथा 7. सत्मय कोष (अन्तिम अवस्था जो अनन्त के साथ मिल जाती है)। मनुष्य के आध्यात्मिक रूप से पूर्ण विकसित होने के लिये सातों कोषों का पूर्ण विकास होना अति आवश्यक है।

प्रथम चार कोष जो मानवता में चेतन हो चुके हैं शेष तीन आध्यात्मिक कोश जो मानवता में चेतन होना बाकी हैं उपरोक्त सातों कोषों के पूर्ण विकास को ही ध्यान में रखकर महर्षि श्री अरविन्द ने भविष्यवाणी की है कि “आगामी मानव जाति दिव्य शरीर (देह) धारण करेगी”।

श्री अरविन्द ने अपनी फ्रैन्च सहयोगी शिष्या के साथ, जो माँ के नाम से जानी जाती थीं, अपनी ध्यान की अवस्थाओं के दौरान यह महसूस किया कि अन्तिम विकास केवल तभी हो सकता है जब लौकिक चेतना (जिसे उन्होंने कृष्ण की अधिमानसिक शक्ति कहा है) पृथ्वी पर अवतरित हो

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प्रश्न – गुरुदेव का कहना है कि गृहस्थ जीवन में रहते हुए भोग और मोक्ष सम्भव | इसका मतलब इस ध्यान को करने से मोक्ष के साथ-साथ हमारे पास भोग यानि सुख-सुविधा अपने आप बढ़ेगी? या हमें खूब एशो आराम के साधन भी अपनाने चाहिए? क्या भोग से यही तात्पर्य है?

उत्तर – यहाँ भोग का मतलब है – आपने पिछले जन्मों में जाने अनजाने में जो भी अच्छे-बुरे कर्म किये हैं, गुरुदेव उन सब कर्मों का भोग इसी जन्म में भुगतवा देंगे | वरना उन कर्मों के भोग के लिए आगे पता नहीं कितने जन्म और लेने पड़ते; अर्थात गुरुदेव की इस साधना के साथ मोक्ष का रास्ता तो खुलता ही है पर कर्मों के भोग भी गुरुदेव इसी जन्म में बराबर कर देते हैं | आपको भोग से तात्पर्य एशो-आराम से नहीं लगाना चाहिए | पर आपकी भौतिक तरक्की आपकी साधना के अनुसार अपने आप होती जायेगी | उसके लिए आपको केवल मन से प्रार्थना, ध्यान व नाम-जप करना है |

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प्रश्न – हमने देखा है कि कई लोगों को गुरुदेव की इस साधना से बहुत जल्दी फायदा होता है, हमें ऐसा फायदा क्यों नहीं होता? हम पूजा-पाठ व अन्य कर्म-कांड करने के साथ-साथ गुरुदेव की साधना भी पूरे मन से कर रहे हैं | कृपया स्पष्ट उत्तर दें |

उत्तर – आप मनन करेंगे तो पायेंगे कि जितना प्रतिशत या भाग आप गुरुदेव के अलावा दूसरी पद्धतियों या पूजा-पाठ में उलझे हुए हैं उतने ही भाग के बराबर आपकी श्रद्धा बंटी होने के कारण फायदा धीरे या कम होगा | अगर आप दो में बँट जायेगे तो फ़ायदा भी आधी गति से होगा | गुरुदेव कहते हैं कि आप लोग ध्यान व नाम-जप के अलावा बाकी सब मेरे पर छोड़ दो और कुछ करने को नहीं कहते | तो आप स्वयं मनन करें कि आप क्या कर रहे हैं? पुराने साधकों के अनुभवों के आधार पर आप स्वयं निष्कर्ष निकालें कि आपको वांछित परिणाम धीरे, कम क्यों मिल रहे हैं?

एक ही प्रकार की बीमारी के 3 साधकों ने अपने अनुभव बताए | पहले ने कहा कि मैं 2 साल से गुरुदेव का नियमित ध्यान करता हूँ फिर घर के मंदिर में पूजा करता हूँ | मेरी बीमारी 2 साल में, 20 प्रतिशत ठीक हुई है | दूसरे साधक नें बताया कि  मैं एक साल से गुरुदेव का नियमित ध्यान करता हूँ, और कोई खास पूजा तो नहीं करता पर सबको अगरबत्ती लगा लेता हूँ, मेरी बीमारी एक साल में 50 प्रतिशत ठीक हुई है |

तीसरे साधक ने बताया कि – मैं 3 महीने से गुरुदेव का नियमित ध्यान कर रहा हूँ एवं मेरी बीमारी में 3 महीने में 90 प्रतिशत आराम आ गया है | उसने पूजा-पाठ के बारे में पूछने पर बताया कि – अगर उन चीजों (पुरानी पद्धतियों) से अगर फायदा हो रहा होता तो गुरुदेव की साधना करने की जरूरत ही क्या थी? फिर तो उन्हीं सब कर्म-कांड में उलझे रहना ज्यादा अच्छा था | अब तो मैं सब कुछ छोड़कर सारे भगवान व पूजा-पाठ इन्हीं गुरुदेव में देखता हूँ | सब कुछ अच्छे-बुरे की चिंता इन्हीं गुरुदेव पर छोड़ दी है | गुरुदेव ने पूजा-पाठ बंद करने के लिए नहीं कहा, तो ये भी नहीं कहा कि करो |

अब आप स्वयं निर्णय करें कि उपरोक्त तीनों साधकों को अलग-अलग परिणाम क्यों मिल रहे हैं? जिसकी जितनी श्रद्धा बँटी हुई है उसी अनुसार परिणाम आ रहे हैं | आपको आपके प्रश्न का उत्तर मिल जायेगा | गुरु के प्रति जितना समर्पण उतना ही परिणाम | आप ये भी ध्यान रखें कि जब कोई कार्य नहीं करना हो तो उसके लिए एक नहीं दस बहाने बनाये जा सकते हैं और कार्य करना हो तो केवल इच्छा ही बहुत है | इसी प्रकार किसी भी पुराने कर्म-कांड या आडम्बर को निरंतर जारी रखने के लिए एक नहीं, बीस बहाने बनाए जा सकते हैं, और इन्हें छोड़ना हो तो केवल गुरुदेव का ध्यान एवं नाम-जप की एकमात्र इच्छा ही बहुत है |

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प्रश्न – कई गुरुभाई या गुरुबहन आपस में विरोध करते प्रतीत होते हैं? तब मन दुखी हो जाता है कि क्या करें | जबाब देते हैं तो अगले का मन दुखी होता है एवं अनावश्यक तनाव बढ़ता है | ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए?

उत्तर – ये बहुत अनुभव व चिंतन की बात है, अगर विरोध करने वाला गुरुभाई या गुरुबहन है और आपको गुरुदेव में भरोसा है तो आप लौट के किसी भी प्रकार का विरोध नहीं करें | अगर आप धैर्य रखेंगे तो कुछ समय बाद पाएंगे कि होने वाला विरोध भी आपके किसी बिगड़े काम को बना गया वरना वो कार्य सम्भव नहीं होता | क्यों कि विरोधी में भी गुरु की शक्ति कार्य कर रही है (तभी वो गुरुभाई या गुरुबहन है)| इसको इस प्रकार से भी समझा जा सकता है – अगर कोई इंसान एक बार गुरुदेव का शिष्य बन जाये और नियमित नामजप व ध्यान करे तो उस इंसान को न तो होने वाली परेशानियों की और न ही होने वाले किसी भी विरोध की चिंता करनी चाहिए और न ही विरोधी को लौट कर जवाब देने की चिंता करनी चाहिए| अगर गुरुदेव पर पूरा भरोसा है तो हमें किसी भी परेशानी या विरोधी के किसी भी बात या हरकत का अंदर से भी बुरा नहीं मानना चाहिए| कई बार होने वाली परेशानी या होने वाला विरोध, वास्तविकता में परेशानी या विरोध नहीं होता, ऐसी परेशानी या विरोध, शक्ति, गुरु के प्रति समर्पण की परीक्षा लेने के लिए भी करवाती है| या यूँ कहें कि ऐसी स्थिति में अपने धैर्य की परीक्षा भी हो जाती है कि हमारे मन में गुरु के प्रति कितना समर्पण है| हम किस स्तर तक शांत रहकर, स्वयं विरोध का पत्थर उठाये बिना रह सकते हैं| क्यों कि विरोधियों के अंदर भी गुरु की ही शक्ति कार्य कर रही है| यदि हम विपरीत परिस्थितियों में भी, परेशानी या विरोध की चिंता किये बिना, गुरुदेव के प्रति पूर्ण समर्पण रखते हुए अपना कार्य कर पायें तो होने वाली परेशानियों एवं विरोधियों को भी धन्यवाद देने का मन करेगा कि उन्ही के कारण हमें अपने आपको, गुरु के प्रति समर्पण को परखने का मौका मिला| ऐसी परेशानी या विरोध के प्रति निर्विकार रह पाना साधना का ही हिस्सा है| गुरुदेव के किसी भी शिष्य को अगर गुरुदेव पर पूरा भरोसा है तो उसे हमेशा वो दोहा याद रखना चाहिए कि “जो तोकू कांटा बुवे, ताहि बोव तू फूल, तोहि फूल को फूल है, बाको है तिरशूल|”

कई बार गुरुदेव के साधकों को विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, तब मन कहता है कि विरोध का जवाब दिया जाये, विरोध का जवाब नहीं दिया, तो इसका मतलब हम गलती पर हैं और विरोधी सही हैं| ये हमारा अहंकार ही होता है जो विरोध का उत्तर न दिए जाने की स्थिति में अपमानित महसूस करता है | इस अपमान के आगे हम गुरुदेव की शक्ति को भी कम आंकते है और स्वयं ही विरोध का पत्थर उठा लेते हैं | जबकि हम सबको गुरुदेव की शक्ति के लिए इतना समर्पण होना चाहिए कि विरोध की चिंता किये बिना गुरुदेव का कार्य करते चलें, विरोध का जवाब देने की चिंता भी गुरुदेव पर छोड़ दें | लेकिन कभी-कभी इतना धैर्य नहीं होता और मन विरोधियों को जवाब देने की दिशा में लग जाता है | जो ऊर्जा गुरुदेव के कार्य में लगनी चाहिए वह विरोधियों का जवाब देने में लग जाती है, फिर हम सोचते हैं कार्यों में बाधा क्यों आ रही है |

यदि हमारा समर्पण गुरुदेव के प्रति पूर्णत: हो जाये तो आने वाली हर परेशानी या विरोध को गुरुदेव की ईश्वरीय सत्ता अपने आप संभाल लेती है | इस बात को एक छोटे से दृष्टान्त से समझा जा सकता है | एक बार कृष्ण भगवान अपने महल में भोजन ग्रहण कर रहे थे एवं पत्नी रुक्मणीजी पास ही बैठी थी | कृष्णजी अचानक भोजन का कौर थाली में छोड़कर द्वार की ओर भाग कर गए फिर एकदम लौटे और पुनः भोजन करने लगे | रुक्मणीजी ने कारण पूछा तो कृष्णजी बोले – “बाहर एक निहत्थे आदमी को बहुत सारे लोग मिलकर पत्थर मार रहे थे, इसलिए उसकी रक्षा करने के लिए भागा |” रुक्मणीजी असमंजस में थी की कृष्णजी द्वार तक जाकर वापस क्यों लौट आये | इसलिए उन्होंने पुछा, “आप द्वार तक जाकर वापस क्यों लौट आये? रक्षा क्यों नहीं की?” कृष्णजी बोले “जब मैं उसकी रक्षा करने के लिए द्वार तक पहुँचा, तब तक उस व्यक्ति ने ही स्वयं की रक्षा करने के लिए अपने हाथ में पत्थर उठा लिया था तो मैं वापस लौट आया | उसे मेरी रक्षा की कोई जरूरत नहीं थी |”

इस दृष्टान्त से यह पता चलता है की अगर हम गुरु की शक्ति पर विश्वास करें तो हर संकट से गुरु बाहर निकालता है| लेकिन होता उल्टा है कि हम हमारी बुद्धि का प्रयोग कर उस संकट से स्वयं के प्रयास से बाहर निकलना चाहते हैं | ऐसा करने से हम असफल तो होते ही हैं साथ ही गुरु की कृपा से भी वंचित रह जाते हैं |

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प्रश्न – जामसर जाने के संबंध में कोई नियम या निर्देश है क्या?

उत्तर – गुरुदेव की तरफ से इस बारे में कोई बंधन नहीं है? प्राय शिष्य दादा गुरुदेव श्री गंगाईनाथजी की बरसी पर जामसर जाते हैं, वैसे जामसर कभी भी जाया जा सकता है. जामसर में और भी कई मंदिर व समाधियां हैं, ज्यादा उचित होगा कि आप केवल दादा गुरुदेव श्री गंगाईनाथजी की समाधी के ही दर्शन करें एवं वापस लौट आयें. वहाँ और भी कर्मकांडी बैठते हैं तो ज्यादा उचित होगा कि ना उन लोगों से मिले ना ही उन लोगों से कुछ ग्रहण करें. आपको वहाँ जाकर किसी भी प्रकार के कर्मकांड में उलझने की जरूरत नहीं है. 

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