कई गुरुभाई या गुरुबहन आपस में विरोध करते प्रतीत होते हैं? तब मन में आता है कि क्या करें अनावश्यक तनाव बढ़ता है | ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए?
उत्तर – ये बहुत अनुभव व चिंतन की बात है, अगर विरोध करने वाला गुरुभाई या गुरुबहन है और आपको गुरुदेव में भरोसा है तो आप लौट के किसी भी प्रकार का विरोध नहीं करें | अगर आप धैर्य रखेंगे तो कुछ समय बाद पाएंगे कि होने वाला विरोध भी आपके किसी बिगड़े काम को बना गया वरना वो कार्य सम्भव नहीं होता | क्यों कि विरोधी में भी गुरु की शक्ति कार्य कर रही है (तभी वो गुरुभाई या गुरुबहन है)| इसको इस प्रकार से भी समझा जा सकता है – अगर कोई इंसान एक बार गुरुदेव का शिष्य बन जाये और नियमित नामजप व ध्यान करे तो उस इंसान को न तो होने वाली परेशानियों की और न ही होने वाले किसी भी विरोध की चिंता करनी चाहिए और न ही विरोधी को लौट कर जवाब देने की चिंता करनी चाहिए| अगर गुरुदेव पर पूरा भरोसा है तो हमें किसी भी परेशानी या विरोधी के किसी भी बात या हरकत का अंदर से भी बुरा नहीं मानना चाहिए| कई बार होने वाली परेशानी या होने वाला विरोध, वास्तविकता में परेशानी या विरोध नहीं होता, ऐसी परेशानी या विरोध, शक्ति, गुरु के प्रति समर्पण की परीक्षा लेने के लिए भी करवाती है| या यूँ कहें कि ऐसी स्थिति में अपने धैर्य की परीक्षा भी हो जाती है कि हमारे मन में गुरु के प्रति कितना समर्पण है| हम किस स्तर तक शांत रहकर, स्वयं विरोध का पत्थर उठाये बिना रह सकते हैं| क्यों कि विरोधियों के अंदर भी गुरु की ही शक्ति कार्य कर रही है| यदि हम विपरीत परिस्थितियों में भी, परेशानी या विरोध की चिंता किये बिना, गुरुदेव के प्रति पूर्ण समर्पण रखते हुए अपना कार्य कर पायें तो होने वाली परेशानियों एवं विरोधियों को भी धन्यवाद देने का मन करेगा कि उन्ही के कारण हमें अपने आपको, गुरु के प्रति समर्पण को परखने का मौका मिला| ऐसी परेशानी या विरोध के प्रति निर्विकार रह पाना साधना का ही हिस्सा है| गुरुदेव के किसी भी शिष्य को अगर गुरुदेव पर पूरा भरोसा है तो उसे हमेशा वो दोहा याद रखना चाहिए कि “जो तोकू कांटा बुवे, ताहि बोव तू फूल, तोहि फूल को फूल है, बाको है तिरशूल|”
कई बार गुरुदेव के साधकों को विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, तब मन कहता है कि विरोध का जवाब दिया जाये, विरोध का जवाब नहीं दिया, तो इसका मतलब हम गलती पर हैं और विरोधी सही हैं| ये हमारा अहंकार ही होता है जो विरोध का उत्तर न दिए जाने की स्थिति में अपमानित महसूस करता है | इस अपमान के आगे हम गुरुदेव की शक्ति को भी कम आंकते है और स्वयं ही विरोध का पत्थर उठा लेते हैं | जबकि हम सबको गुरुदेव की शक्ति के लिए इतना समर्पण होना चाहिए कि विरोध की चिंता किये बिना गुरुदेव का कार्य करते चलें, विरोध का जवाब देने की चिंता भी गुरुदेव पर छोड़ दें | लेकिन कभी-कभी इतना धैर्य नहीं होता और मन विरोधियों को जवाब देने की दिशा में लग जाता है | जो ऊर्जा गुरुदेव के कार्य में लगनी चाहिए वह विरोधियों का जवाब देने में लग जाती है, फिर हम सोचते हैं कार्यों में बाधा क्यों आ रही है |
यदि हमारा समर्पण गुरुदेव के प्रति पूर्णत: हो जाये तो आने वाली हर परेशानी या विरोध को गुरुदेव की ईश्वरीय सत्ता अपने आप संभाल लेती है | इस बात को एक छोटे से दृष्टान्त से समझा जा सकता है | एक बार कृष्ण भगवान अपने महल में भोजन ग्रहण कर रहे थे एवं पत्नी रुक्मणीजी पास ही बैठी थी | कृष्णजी अचानक भोजन का कौर थाली में छोड़कर द्वार की ओर भाग कर गए फिर एकदम लौटे और पुनः भोजन करने लगे | रुक्मणीजी ने कारण पूछा तो कृष्णजी बोले – “बाहर एक निहत्थे आदमी को बहुत सारे लोग मिलकर पत्थर मार रहे थे, इसलिए उसकी रक्षा करने के लिए भागा |” रुक्मणीजी असमंजस में थी की कृष्णजी द्वार तक जाकर वापस क्यों लौट आये | इसलिए उन्होंने पुछा, “आप द्वार तक जाकर वापस क्यों लौट आये? रक्षा क्यों नहीं की?” कृष्णजी बोले “जब मैं उसकी रक्षा करने के लिए द्वार तक पहुँचा, तब तक उस व्यक्ति ने ही स्वयं की रक्षा करने के लिए अपने हाथ में पत्थर उठा लिया था तो मैं वापस लौट आया | उसे मेरी रक्षा की कोई जरूरत नहीं थी |”
इस दृष्टान्त से यह पता चलता है की अगर हम गुरु की शक्ति पर विश्वास करें तो हर संकट से गुरु बाहर निकालता है| लेकिन होता उल्टा है कि हम हमारी बुद्धि का प्रयोग कर उस संकट से स्वयं के प्रयास से बाहर निकलना चाहते हैं | ऐसा करने से हम असफल तो होते ही हैं साथ ही गुरु की कृपा से भी वंचित रह जाते हैं |